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मृदा ( मिट्टी ) का क्या अर्थ है ? मृदा की उत्पत्ति तथा मृदा का गठन | मृदा (Soil) का वर्गीकरण बताइये। What is soil – What is soil in Hindi

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What is soil ? Classification of Indian Soil. Properties of Soil ( Physical property and Chemical Proparties) explain in Hindi :-

नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका careerjankari.in में। आज हम आपको बताने जा रहे हैं मिट्टियों के बारे में , जिस पर समस्त जीवधारी निवास करते हैं जैसे मनुष्य, पशु – पक्षी, जीव जंतु और पेड़ – पौधे।इन सभी को एक स्थायी निवास की आवश्यकता होती है। इसलिए माँ प्रकति ने हमें मिट्टी या जमीन प्रदान कर एक प्राकृतिक उपहार दिया है। इसलिए आइये पढ़ते हैं मृदा या मिट्टियों के बारे में। इस लेख को पूरा पढ़िये तो आपको मिट्टी के बारे में समस्त जानकारी मिलेगी।

What is soil in Hindi

मिट्टी या मृदा ( Soil) का क्या अर्थ है ?

मृदा का दूसरा नाम ही मिट्टी है। मृदा अनेक प्रकार के खनिज, पौधों और जीव जंतुओं के अवशेषों से बनी है। भू पृष्ठ पर असंगठित दानेदार कणों वाली पतली परत, मृदा ( Soil) कहलाती है। अर्थात यह मूल चट्टानों और जैव पदार्थों का सम्मिश्रण है, जिसमे उपयुक्त जलवायु होने पर नाना प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है। समस्त मानव जीवन मिट्टी पर निर्भर करता है। समस्त प्राणियों का भोजन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिट्टी से प्राप्त होता हैं। मृदा किसान की अमूल्य सम्पदा है। हमारे देश के आर्थिक विकास का प्रमुख आधार मिट्टी या मृदा है। 

मृदा या मिट्टी की उत्पत्ति ( Soil of Original) :-

मृदा ( Soil ) एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है। मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के सोलम ( Solum) शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है – फर्श ( Floor) । मृदा विज्ञान में मृदा का अध्ययन करना मृदा विज्ञान ( pedology) कहलाता है।

मृदा (Soil) का निर्माण चट्टानों के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक अपक्षय (Weathering) से होता है। मृदा मूलत: जिस पदार्थ के क्षरण से निर्मित होती है वह मृदा का मूल पदार्थ कहलाता है। ये पदार्थ ग्रेनाइट, संगमरमर, स्लेट जैसी कठोर चट्टानों के साथ – साथ ज्वालामुखी लावा, राख , रूपांतरित चट्टानें तथा अवसादी चट्टानें से निर्मित है। चट्टानों के ऊपर तेज गति से बहता हुआ जल चट्टानों के टुकड़ों को अपने साथ ले जाता है । पानी की गति के साथ चट्टानों के टुकड़े लगातार आपस में रगड़ खाते रहते हैं, जिनसे छोटे-छोटे टुकड़े तथा सूक्ष्म कणों (Particles) का निर्माण होता है ।तापमान (Temperature) के घटने-बढ़ने से चट्टानें सिकुड़ती तथा फैलती हैं जिससे वे फट जाती हैं और उनमें दरारें पड़ जाती है । वर्षा (Rain) के दबाव एवं वायु (Wind) के बहुत अधिक तेजी से चलने के कारण इन दरारों से चट्टानें टूटकर नीचे गिर जाती है और छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हों जाती है ।


ह्यूमस का निर्माण मिट्टी से ठीक नीचे चट्टानों के विघटन (Decomposition) और उन पर कार्बनिक पदार्थों (Organic Matter) के फलस्वरूप होता है । इसमें अधिकांश वनस्पतियाँ और जंतु स्थायी रूप से निवास करते हैं। Humas ह्यूमस मृदा को नमी का अवशोषण करने तथा उस पर नमी बनाये रखने में सक्षम बनाता है। मृदा में ह्यूमस की उपस्थित पौधों की संतुलित वृद्धि में सहायक होती है। मृदा (Soil) में कार्बनिक (Organic) एवं अकार्बनिक (Inorganic) पदार्थ पाये जाते हैं । अत: मृदा केवल खनिज (Mineral) कणों (Particles) का ही समूह नहीं है । इसका अपना जैवीय वातावरण भी होता है । अत: मृदा की जगह जटिल मृदा (Complex Soil) कहलाती है ।

मृदा गठन ( Soil Texture) :-

मृदा में विभिन्न प्रकार के कण पाए जाते हैं। सबसे बारीक मृदा को कोलाइडल मृतिका कहा जाता है, जिसके कणों को नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता है। मृदा के बढ़ते आकार के आधार पर इन्हे बजरी, रेत, चीका, पंक आदि नामों से जाना जाता है। मृदीय जल एवं मृदीय घोल (Soil Water and Soil Solution)- मृदीय जल (Soil Water) एक घोल के रूप में होता है क्योंकि इसमें खनिज (Mineral) एवं गैसें घुली रहती हैं ।

मृदा का वर्गीकरण ( Classification of Soil) :-

प्राचीन काल में में मृदा को दो वर्गों में विभाजित किया गया था। जैसे – उर्वर या उपजाऊ (Urvara) तथा ऊसर या अनउपजाऊ ( Usara) ।

भारत में मृदाओं का वर्गीकरण (Classification of Indian Soil ):-

भारत एक विशाल देश है जहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाईं जाती हैं ।यहाँ की मिट्टी के क्षेत्रीय वितरण में असमानता का मुख्य कारण तापमान, वर्षा तथा आर्द्रता जैसे जलवायुगत तत्वों में भिन्नता का होना, विभिन्न भौगर्भिक युगों की संरचना, वनस्पति आवरण में क्षेत्रीय भिन्नता आदि का पाया जाना है ।अर्थात मिट्टी के निर्माण में चट्टानों का योगदान निर्विवाद रूप से स्वीकृत है, तथापि जलवायु के तत्व, धरातलीय संरचना, जीव-जंतु, वनस्पतियां और मानव क्रियायें भी मिट्टी के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसी स्थिति में मिट्टियों के वर्गीकरण में इन तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। इसलिए भौगोलिक दृष्टि से भारतीय मिट्टियों का अध्ययन उनकी धरातलीय विशेषताओं को दृष्टिगत करके किया जाना चाहिए। इस आधार पर भारत की मिट्टियों को चार वर्गों में विभाजित किया जाता है-

भारत में पाई जाने वाली प्रमुख मृदाएँ इस प्रकार हैं –

  1. हिमालय पर्वत की मिट्टियां ।
  2. विशाल मैदानं की मिट्टियां
  3. प्रायद्वीपीय मिट्टियां
  4. अन्य प्रकार की मिट्टियां

(1) हिमालय प्रदेश की मिट्टियां :-

हिमालय पर्वत पर या पर्वतीय क्षेत्र में अनेक प्रकार की मृदाएँ पाई जाती हैं। परंतु ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि हिमालय पर्वत की मिट्टियों का निर्माण अभी पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है। अभी यह मिट्टी बाल्यावस्था में है और पतली, दलदली, तथा छिद्रयुक्त है। इसकी गहराई नदियों की घाटियों, और पहाड़ी ढालों पर अधिक होती है। पहाड़ी ढालों पर सामान्यतया हल्की बलुई, छिछली व छिद्रयुक्त मिट्टियां पाई जाती हैं, जबकि पश्चिमी हिमालय के ढालों पर भारी बलुई मिट्टी मिलती है। मध्य हिमालय की मिट्टियों में वनस्पति के अंश की अधिकता है, जिसके कारण यह अधिक उपजाऊ है। वैसे पर्वतीय मिट्टियों का विकास अन्य मिट्टियों की अपेक्षा कम हुआ है। इन पर्वतीय मिट्टियों को उनकी संरचना, कणों के आकार और फसल उत्पादन की विशेषता के आधार पर विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है।

चूना व डोलोमाइट निर्मित मृदा :-

पर्वतीय क्षेत्रों में अर्थात हिमालयी क्षेत्रों में इन चट्टानों के निकटवर्ती भागों में ही चूनायुक्त मिट्टी का निर्माण हुआ है। वर्षा होने पर चूने का अधिकांश भाग इस मिट्टी में से बहकर निकल जाता है, थोड़ा-बहुत अंश धरती पर रह जाता है। यही कारण है कि इस प्रकार की भूमि अनुपजाऊ या बीहड़ बन जाती है। इस मिट्टी में चीड़, साल आदि के वृक्ष उगते हैं और कहीं-कहीं तो घाटियों में चावल भी उगाया जाता है। इस प्रकार की मिट्टी मुख्य रूप से नैनीताल, मसूरी और चकराता के निकट पाई जाती है। यहाँ की जलवायु में कई प्रकार की विभिन्नताएं देखने को मिलती हैं।

लेटेराइट मिट्टी या चाय की मिट्टी :-

इस मिट्टी का निर्माण हिमालय प्रदेश के मध्य भाग में पर्वतीय ढाल वाली मिट्टी में वनस्पति के अंश की प्रचुरता होती है और लोहे की मात्रा अधिक तथा चूने की मात्रा कम होती है। चूंकि इस प्रकार की मिट्टी चाय उत्पादन के लिए सर्वोत्तम होती है, इसलिए इसे चाय मिट्टी कहा जाता है। चाय मिट्टी प्रमुख रूप से देहरादून, कांगड़ा, दार्जिलिंग तथा असम राज्य के पहाड़ी ढालों पर पाई जाती है। यहाँ की चाय अत्यंत प्रसिद्ध है। ढालों पर स्थित होने के कारण यह मिट्टी बागानी फसलों एवं फलों की कृषि के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। भारत में चाय,कहवा, मसाले एवं फलों की कृषि इसी मृदा में की जाती है।

(2) विशाल मैदान की मृदाएँ :-

उत्तर भारत का मैदान हिमालय और प्रायद्वीपीय भारत के मध्य स्थित एक लगभग समतल व उपजाऊ मैदान है| यह नवीनतम भूखंड जिसका निर्माण हिमालय की उत्पत्ति के बाद हिमालय की नदियों द्वारा प्लिस्टोसिन काल में हुआ है। हिमालय से आने वाली नदियों (जैसे-गंगा,यमुना,कोसी,ब्रह्मपुत्र आदि) व प्रायद्वीप से आने वाली नदियों (जैसे-चंबल,सोन आदि) ने अपने साथ लाये गए जलोढ़ के निक्षेपण द्वारा इस मैदान को भारत का सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र बना दिया है। जलोढ़ मिट्टी नदियों द्वारा बहा कर लाई गई मिट्टी है । इस मिट्टी में पोटाश की अधिकता होती है ।यह मिट्टी भारत के लगभग 22 फीसदी क्षेत्र फल में पाई जाती है।

जलोढ़ या दोमट मृदा ( Alluvial Soil ) :-

यह उत्तरी मैदानों और नदी घाटियों में भारत के सर्वाधिक क्षेत्रों में पाई जाने वाली मृदा है, जो देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40% भाग ढके हुए है। जलोढ़ मृदाएँ गठन में बलुई दोमट से चिकनी होती है। इस मिट्टी में पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चूना तथा जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। किंतु इनमें नाइट्रोजन तथा ह्यूमस तत्व बहुत कम पाया जाता है। इस मिट्टी की परिछेदिका उच्च भूमियों में अपरिपक्व एवं निम्न भूमियों में परिपक्व होती है।

जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। इसका रंग निक्षेपण की गहराई, जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयाविधि पर निर्भर करता है। जलोढ़ मृदा की उर्वरता अधिक होती है, इसलिए जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है। यह पानी (Water) की पर्याप्त मात्रा को रोके रहती है और इसमें वायु (Air) संचार भी भली-भाँति होता है । इस मिट्टी के कोशिकत्व (Capillary) विधि द्वारा जल (Water) पौधे की जड़ों (Roots) से प्राप्त होता रहता है । इन क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व भी अधिक पाया जाता है। बलुई दोमट मिट्टी की जल धारण क्षमता सबसे कम होती है क्योंकि इसमे रेत के कण भारी मात्रा में पाये जाते हैं।

जलोढ़ या दोमट मिट्टी दो प्रकार की होती है –

(1) बांगर मिट्टी (2) खादर मिट्टी

(1) बांगर मिट्टी :-

प्राचीन जलोढ़क से बनी यह मृदा नदियों के बाढ़ तल से उठे ऊपर दोआबो में पायी जाती हैं। यह नवीन जलोढ़क मृदा से शुष्क तथा कम उपजाऊ होती हैं। इस मृदा में खाद तथा सिंचाई की अधिक आवश्यकता हैं। यह प्रमुखता उत्तरप्रदेश, बिहार, असम तथा बंगाल में पायी जाती हैं। इन दोनों प्रकार की मृदाओं में सभी प्रकार की फसलें पैदा की जाती हैं। शुष्क क्षेत्रों में इन मृदाओं में लवणीयता तथा क्षारीयता के निक्षेप भी मिलते हैं, जिन्हें रेह कहा जाता है। बांगर के निर्माण में चीका मिट्टी का प्रमुख योगदान रहता है, कहीं – कहीं दोमट या रेतीली दोमट मिट्टी भी मिलती है।

(2) खादर मिट्टी :-

यह प्रति वर्ष बाढ़ों के द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढक है, जिसमें बारीक गाद् की अधिकता के कारण मृदा की उर्वरता बढ़ जाती है। इसमें बांगर मृदा की तुलना में ज्यादा बारीक कण पाए जाते हैं। खादर और बांगर मृदाओं में कंकड़ भी पाये जाते हैं। पूर्वी तटीय मैदानों में यह मिट्टी कृष्णा, गोदावरी, कावेरी और महानदी के डेल्टा में प्रमुख रूप से पाई जाती है| इस मिट्टी की प्रमुख फसलें खरीफ और रबी जैसे- दालें, कपास, तिलहन, गन्ना और गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी में जूट प्रमुख रूप से उगाया जाता है।

प्रायद्वीपीय मृदाएँ :-

लाल और पीली मृदा :-

इसका निर्माण जलवायविक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप रवेदार एवं कायांतरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से होता है। इस मिट्टी में लोहा एवं सिलिका की प्रधानता होती है। इस मृदा का लाल रंग लौह ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है। लेकिन जलयोजित रूप से पीली दिखाई देती है। यह अम्लीय प्रकति की मृदा होती है। इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा ह्यूमस की कमी होती है। यह मृदा प्राय: बंजर भूमि के रूप में पाई जाती है। उच्च भूमियों में इन मिट्टी की परत महीन होती है तथा ये बजरीयुक्त, बलुई होती हैं। इसलिए इनमें कपास, गेहूँ, दाल, तंबाकू, ज्वार, अलसी, मोटे अनाज, आलू तथा फलों की खेती के लिए उपयुक्त होती हैं।

काली मिट्टी :-

भारत में काली मृदा का निर्माण ज्वालामुखी विस्फोट से निकले लावा के ठंडे होने के उपरांत बेसाल्ट लावा के अपक्षय से हुआ है। इस मिट्टी में चुना, पोटॅश, मैग्निशियम, एल्यूमिना और लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। इसका विस्तार लावा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि नदियों ने इसे ले जाकर अपनी घाटियों में भी जमा किया है। यह बहुत ही उपजाऊ है और कपास की उपज के लिए प्रसिद्ध है इसलिए इसे कपास वाली काली मिट्टी कहते हैं। इस मिट्टी में नमी को रोक रखने की प्रचुर शक्ति है, इसलिए वर्षा कम होने पर भी सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। इसका काला रंग शायद अत्यंत महीन लौह अंशों की उपस्थिति के कारण है। इस मिट्टी का रासायनिक संघटन इस प्रकार है-इसकी मिट्टी की मुख्य फसल कपास है। इस मिट्टी में गन्ना, केला, ज्वार, तंबाकू, रेंड़ी, मूँगफली और सोयाबीन की भी अच्छी फसल होती है।

लेटेराइट मिट्टी :-

लेटेराइट एक लैटिन शब्द लेटर से बना हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ ईट होता है।इस मिट्टी में भी आइरन ऑक्साइड की अधिकता पाई जाती है। यह देखने में लाल मिट्टी की तरह लगती है, किंतु उससे कम उपजाऊ होती है। ऊँचे स्थलों में यह प्राय: पतली और कंकड़मिश्रित होती है और कृषि के योग्य नहीं रहती, किंतु मैदानी भागों में यह खेती के काम में लाई जाती है।  यह मिट्टी तमिलनाडु के पहाड़ी भागों, केरल, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा के कुछ भागों में,  दक्षिण भारत के पठार, राजमहल तथा छोटानागपुर के पठार, असम इत्यादि में सीमित क्षेत्रों में पाई जाती है। दक्षिण भारत में मैदानी भागों में इसपर धान की खेती होती है और ऊँचे भागों में चाय, कहवा, रबर तथा सिनकोना उपजाए जाते हैं।

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